देश में जवानों के अंदर इतना जज्बा है कि अगर कोई नेता घटना स्थल तक न भी पहुंचे तो वह अपने नागरिकों के लिए जान की बाजी लगा देते हैं। तो फिर इस ठंड में स्वयं सेवक आधा कच्छा पहन के वहां कैसे पहुंच गए। और अगर सच में स्वयं सेवक का प्रशिक्षण उस स्तर का है जितना की सेना तो आपदा के सभी कार्यों में पूरे देश में स्वयं सेवक ही भेजे जाएं। अब तक चमोली और रुद्रप्रयाग के जंगल आग में जलते रहे उस वक्त कहाँ थे आधे कच्छे वाले लोग। क्या स्वयं सेवकों को यह नही सिखाया गया -" जीवो- जीवे रक्षते" हजारों बेजुवान आग में जल गये उस वक्त तो कोई स्वयं सेवक पानी की जैरकीन कांधे में लिए नजर नही आया। फिर आज कैसे इतनी ठंड और जंगली भालुओं (जैसा की प्रचार किया जा रहा है) के बीच में आधे कच्छे के साथ कूद पड़े। इंसानियत के नाते खुद से सवाल पूछिए, क्योंकि मरने वाला भी इंसान है और बचाने वाला भी इंसान। पहले इंसान बनिए उसके बाद नेता या स्वयं सेवक।