भड़ो में भड़ (वीरों में वीर) माधोसिंह भंडारी, सोणबाण कालू भंडारी के पुत्र थे। इनका जन्म 1585 से 1995 के बीच बताया जाता है । इनकी वीरता और लोककल्याण की एक गाथा मलेथा की कूल (नहर)गढ़वाल में प्रसिद्ध है । जिसका निर्माण 1634 में किया गया था । लेकिन इनके वीरता का एक और रूप जो अधिकांश लोगों को आज पता नही है, का इस कथा में वर्णन करूँगा । भड़ माधोसिंह भंडारी श्रीनगर के राजा महीपत शाह (1629-46) के समय सेनापति रहे थे ।

इनके सेनापति कार्यकाल में तिब्बत की ओर से गढ़वाल में लूट-पाट होनी शुरू हुई । अतैव महाराज महिपत शाह ने अपने नेतृत्व में सेना का संगठन किया, जिसमें लोदी रिखोला को प्रमुख सेनापति तथा माधोसिंह भंडारी को सहायक सेनाध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया । उसके बाद महिपत शाह अपनी सेना के साथ नीतिघाटी की ओर प्रस्थान किया । उन दिनों गढ़वाल में ब्राह्मण व क्षत्रियों में रोटी और भात (चाँवल) दोनों को वस्त्र उतारकर पकाने व खाने की प्रथा थी । लेकिन नीतिघाटी में इतनी ठण्ड थी कि वहां पर वस्त्र उतारकर भोजना बनाना सम्भव नही था । अतः राजा को ओर से यह घोषणा कर दी गयी कि रोटी को शुच्चा (स्वच्छ) समझा जाए । लोग बिना वस्त्र उतारे भी चौके (खाने बनाने वाला आँगन) के बाहर एक दूसरे के हाथ की पकी रोटी खा सकते हैं । कहते हैं, तभी से गढ़वाल में रोटी को शुच्चा (स्वच्छ) और भात (चाँवल) को अशुच्चा (अस्वच्छ) माना जाता है ।
योजना के तहत गढ़वाली सेना ने तिब्बत पर हमला बोला और गढ़वाली सेना को विजय प्राप्त हुई । दापाघाट के किले व मंदिर गढ़वाल राज्य में सम्मिलित कर लिए गए । वहां की देख रेख के लिए दो बड़थ्वाल जाती के लोगों को नियुक्त कर दिया गया । उन दोनों ने वहां अपनी वीरता का उत्तम प्रदर्शन किया । दापाघाट के बौद्ध मंदिर में भगवान बुद्ध के साथ साथ उन दो बड़थ्वाल तलवारों की भी पूजा की जाती है, जो मंदिर में स्थित हैं । इधर श्रीनगर में लोदी रिखिला की दुःखद मृत्यु के बाद माधोसिंह भंडारी को प्रमुख सेनाध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया । माधोसिंह भंडारी को सेनापति का पद मिलते ही उनको दो अहम जिम्मेदारियां भी सौंपी गयी । उत्तरी व पश्चिमी सीमाओं का निर्धारण करें तथा उनकी सुरक्षा का समुचित प्रबन्ध भी करें । जिसका माधोसिंह भंडारी ने निःस्वार्थ भाव से पालन किया । उनके द्वारा बनाये गए सीमा-निर्धारण-सम्बंधी चबूतरे आज भी हिमालय की चोटियों और घाटियों में यत्र-तत्र दिखाई पड़ते हैं । और सबसे बड़ी बात यह है कि मुख्य हिमालय में तिब्बत के साथ माधोसिंह भंडारी ने जो सीमा निर्धारिती की थी, उसी को मैकमोहन रेखा में सम्मिलित किया गया है । सीमा का निर्धारण करते हुए माधोसिंह भंडारी चीन में प्रवेश कर गये थे । कई वर्षो तक हिम (बर्फ) में कठोर कार्य करने के कारण उनका स्वास्थ्य खराब हो गया और कब माधोसिंह भंडारी को अहसास हो गया कि अब अंतिम समय निकट आ गया है तो उन्होंने अपने सैनिकों से कहा- “मेरी मृत्यु को खबर किसी को नही होनी चाहिए अन्यथा शत्रु सैनिक तुम्हें कमजोर जानकर चारों तरफ से घेर लेंगे और खत्म कर डालेंगे । तुम सीमा पर निरन्तर लड़ते रहना और समझदारी से धीरे -धीरे पीछे वतन को लौट जाना । मेरी लास को कपड़े में लपेड कर तेल में डाल देना और जब यहां से निकल जाओ तो मेरे मृत शरीर को हरिद्वार ले जाकर दाह-संस्कार करना । उनके सैनिकों द्वारा ऐसा ही किया गया और हरिद्वार से दाह-संस्कार कार्य के बाद जब सैनिक श्रीनगर लौटे तब राजा को पूरा घटना क्रम सुनाया गया । जब राजा ने सारा वृतांत सुना तो राजा अपने वीर सेनापति की मृत्यु से स्तब्ध हो गया । ऐसा वीर युगों युगों में ही इस धरती पर पैदा होता है जिसको याद करके आज भी लोगों को वीरता का पाठ पढ़ाया जाता हो ।
गढ़वाली बोली में वीरता की यह दो पंक्तियां जो राजपूतों के लिए उनके पूर्वज माधोसिंह भंडारी के “सिंह” शब्द की गूंज है –
एक सिंह रौंदू बौण, एक सिंह गाय का ।
एक सिंह माधोसिंह, एक सिंह काहे का ।।