उत्तराखंड का इतिहास तीन कालों में विभाजित है –
1-प्रागैतिहासिक काल (prehistoric Era) – यह काल मानव इतिहास के प्रारम्भ से लगभग 3000 ई.पू. तक का काल है जिसको पाषाण काल के नाम से भी जाना जाता है ।
2-आदय ऐतिहासिक काल ( proto historic Era) – 3000 ई.पू. से 600 ई.पू. तक । इसको पौराणिक काल के नाम से भी जाना जाता है ।
3- ऐतिहासिक काल (historic Era) – 600 ई.पू. के बाद का काल । जो कि तीन चरणों में घटित है ।
- प्राचीन
- मध्यकालीन
- आधुनिक
पाषाण काल (3000 ई.पू.)
इस काल का बोध पुरातत्व साक्ष्य पर आधारित है । इस काल के मानव को पढ़ने लिखने का ज्ञान नही था अतैव वह कला कृतियाँ बनाता था और गुफाओं में जीवन यापन करता था । उत्तराखंड में ऐसे ही कुछ साक्षात्कार मिले है जिनमें पत्थर के उपकरण, गुफा, शैलीचित्र ,कंकाल, मृदभांड ( मिट्टी के बर्तन) आदि सामिल हैं ।
* लाखु गुफा – यह अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना के पास दलबैंड में सन 1963 में खोजी गयी तथा इसमें मानव व पशुओं की रंगीन आकृतियां मिली जिसमें मानव को नृत्य करते हुए दिखाया गया था ।
* ग्वारख्या गुफा – चमोली जिले के अलकनन्दा नदी के किनारे डूंग्री गांव के पास खोजी गयी तथा इसमें मानव,भेड़,बारहसिंगा,लोमड़ी आदि की रंगीन आकृतियां मिली जो की लाखु गुफा से अधिक चटकदार हैं ।
* चमोली के ही किमानी गांव में थराली नामक स्थान के पास हल्के सफेद रंग के हथियार व पशुओं के शैलचित्र मिले तथा सन 2000 में मलारी गांव चमोली में नरकंकाल, 52 kg का सोने का मुखावर्ण मिला ।
* अल्मोड़ा के ल्वेक्षाप ,हुडली,पेटशाल, फलसीमा में अनेक शैलचित्र व आकृतियां प्राप्त हुई ।
* पिथौरागढ़ में 8 मानव आकृतियां प्राप्त हुई ।
पौराणिक काल
इस काल का साक्षात्कार पुरातात्विक व साहित्यिक दोनों रूपों में मिलता है । इस काल के मुख्य साक्षात्कार विभिन्न धर्मग्रन्थ हैं ।
*उत्तराखंड का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है जिसमें इसे देवभूमि कहा गया है ।
*कई पौराणिक ग्रन्थों में इसे मनीषियों की पपूर्ण भूमि,ऋषि भूमि, पवित्र भूमि के नाम से सम्बोधित किया गया है।
*ऐतरेव ब्राह्मण ने इसे उतर-कुरु कहा है ।
*स्कन्द पुराण में उत्तराखंड को दो भागों में बाँटा गया है जिसमें से एक भाग केदारखंड ( वर्तमान गढ़वाल) और दूसरा भाग मानसखंड (वर्तमान कुमाऊँ) के रूप में उल्लेखित है ।
*स्कन्द पुराण में कुल पांच खण्ड है – नेपाल, मानसखंड,केदारखंड, जालन्धर और कश्मीर ।
*बौद्ध साहित्य के पालीभाषा वाले ग्रन्थ में उत्तराखंड के लिए हिमवंत शब्द प्रयोग किया गया है ।
★ चम्पावत के पास स्थित कच्छप के पीठ की आकृति वाले कातेश्वर पर्वत ( वर्तमान कांडादेव) पर भगवान विष्णु का ” कुर्मा अवतार” हुआ था । इसी से इसका नाम कुर्माचल फिर कुमु औऱ बाद में कुमाऊँ हो गया ।
*पुराणों के अनुसार यहां किरात, किन्नर,यक्ष,गधर्व, विद्याधर,नाग,खस जातियां रहती थी । तथा अल्मोड़ा का जाखन देवी मन्दिर यक्षों के निवास की पुष्टि करता है ।
*बेनीनाग,धौलनाग,कालीनाग,पिंगलानाग, खरहरीनाग और वासुकिनाग आदि नागों के निवास की पुष्टि करता है ।
★ गढ़वाल क्षेत्र :- महाभारत काल में इस क्षेत्र को बद्रिकाश्रम क्षेत्र के नाम से जाना जाता था ।
*ब्रह्मा के मानस पुत्रों दक्ष, मरीचि, पुलस्त्य,पुलह,ऋतू और अत्री का निवास स्थल गढ़वाल ही था ।
*देवप्रयाग की सितोंस्य पट्टी में सीता जी ने पृथ्वी में समायी थी ।
*टिहरी में जिस स्थान पर लक्ष्मण में तपस्या की थी उसे तपोवन के नाम से जाना जाता है ।
*वाणासुर का राज्य भी गढ़वाल में ही था जिसकी राजधानी ज्योतिषपुर (जोशीमठ) थी । रामायण में इसका उल्लेख मिलता है ।
*पुलिंद राजा सुबाहु ने पांडवो की ओर से युद्ध लड़ा था । महाभारत के बन पर्व में लोमस ऋषि के साथ पाण्डव के बद्रीनाथ क्षेत्र में आने का उल्लेख मिलता है । यह मान्यता है कि पाण्डव कुन्ती व द्रोपदी सहित इसी रास्ते स्वर्ग गये थे ।
• जौनसार के राजा विराट की पुत्री से अभिमन्यु का विवाह हुआ था ।
• प्राचीन काल में इस क्षेत्र में बद्रिकाश्रम और कण्वाश्रम नामक दो विद्यापीठ थे ।
• महाकवि कालिदास ने अपना महाकाव्य “अभिज्ञान शाकतलम” की रचना मालिनी नदी के तट पर कण्वाश्रम (वर्तमान चौकाघाट -पौड़ी जिला) में ही की थी ।
• चक्रवर्ती सम्राट भरत का जन्म भी कण्वाश्रम में ही हुआ था । भरत दुष्यंत और शकुंतलाके पुत्र थे ।भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा था ।
• धार्मिक ग्रन्थों में कहीं कहीं पर “केदार खसमण्डले” शब्द का प्रयोग किया गया है । वैज्ञानिकों का मानना है की पौराणिक काल में खस जाती के लोग बहुत सशक्त थे । खसों के समय गढ़वाल क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार अधिक हुआ था ।
ऐतिहासिक काल
पुरातात्विक साक्ष्य, साहित्यक साक्ष्य तथा विदेशियों का वर्णन मिलता है ।
ऐतिहासिक काल तीन भागों में वर्गीकृत है-
- प्राचीन काल
- माध्यकालीन काल
- आधुनिक काल
उत्तराखंड राज्य के विभिन्न स्थलों से कई प्रकार के लेख शिलालेख, मंदिरलेख ,ताम्रपत्र लेख, ईंटलेख, मूर्तिलेख, त्रिशूल लेख और मुद्रा लेख मिले है । जिसमे कालसी जो की देहरादून में स्थित है वहाँ पर अशोक का अभिलेख बहुत महत्वपूर्ण है । 257 ई.पू. अशोक ने कालसी में अपना एक अभिलेख स्थापित किया जिसमे उसने यह घोषणा की, कि मैने हर स्थान पर मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सा की व्यवस्था कर दी है । इसमे लोगो को हिंसा त्यागने और अहिंसा को अपनाने की बात भी की है । इसी लेख में यहां के निवासियों के लिए ‘पुलिंद’ और उत्तराखंड क्षेत्र के लिए ‘अपरान्त’ शब्द का प्रयोग किया गया है । यह लेख पाली भाषा में लिखा गया है । कालसी अभिलेख से स्पष्ट है कि मौर्य शासक काल में उत्तराखंड का भारत के राजनैतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान था । उत्तराखंड एक वीरान विहड़ जंगल था अतैव यहाँ किसी स्थाई राज्य के विकसित या स्थापित होने की स्पष्ट जानकारी नही है हाँ थोड़ा बहुत सिक्कों,अभिलेखों और ताम्रपत्रों के आधार पर इसके प्राचीन इतिहास के सूत्रों को जोड़ा गया है ।
● कुणिंद वंश – यह उत्तराखंड पे शासन करने वाला पहला राजनैतिक वंश था जो तीसरी ,चौथी ई.पू. तक पहाड़ो पर शासन करता रहा । इसका पहला राजा सुबाहु था जिसका उल्लेख महाभारत में मिलता है । ये मौर्य वंश के समकालीनशासक थे । इस वंश का अंतिम राजा अमोधभूति था और वह बहुत शक्तिशाली राजा था । अमोधभूति की मृत्यु के बाद शक वंश का शासन हुआ इस शासनकाल में मंदिरों का निर्माण भी हुआ । उसके बाद कुषाण वंश आया इसी शासन में वीरभद्र ( ऋषिकेश) ,मोरध्वज ( कोटद्वार) और गोविषाण (काशीपुर) नामक स्थान बने । इसके बाद यौधेय शासक हुए जिसके परिमाण जौनसार (भाबर) और कालीडाण्डा (पौड़ी) से मुद्रा रूप में प्राप्त हुए थे । इसके बाद कुर्तपुर राज्य का हुआ जिसमे उत्तराखंड,हिमांचल और रोहिलखण्ड का उत्तरी भाग सम्मिलित था । उसके बाद आया नाग वंश , नाग वंश ने कुणिंद वंश का खात्मा कर दिया और नाग वंश की राजकुमारी चम्पावती के नाम पर चम्पावत की स्थापना की । इसके बाद मौखरि वंश ( कन्नौज का राजवंश) आया इस वंश के अंतिम राजा गृहवर्मा की हत्या के बाद उनके बहनोई हर्षवर्धन को राजा बनाया गया । कहा जाता है की राजा हर्षवर्धन के शासन में ही दूसरे देशों के यात्री यहाँ आये थे , इसी बीच चीनी यात्री हवेनसांग भी यहां आया था और उसने कुछ जगहों के नाम भी चीनी भाषा में सम्बोधित किए थे । राजा हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तराखंड में छोटे छोटे कई राज्य स्थापित हुए जिसको बहुराजक्ता युग के नाम से जाना जाता है । इसमे तीन प्रमुख राज्य थे –
ब्रह्मपुरी,शत्रुघ्न जो की गढ़वाल के और गोविषाण कुमाऊँ में स्थित था । इसमे सबसे बड़ा राज्य ब्रह्मपुरी के होने का वर्णन मिलता है । इस शासनकाल में अनेक छोटे छोटे राजा हुए लेकिन इसके बाद कार्तिकेयपुर राजवंश का उदय हुआ औऱ उसने इन सबका खात्मा कर दिया । इस वंश के पहले राजा बसंत देव थे । कार्तिकेयनपुर वंश के दौरान गढ़वाल क्षेत्र में एक नए वंश परमार या पंवार वंश का उदय होने आरम्भ हुआ जिससे प्रभावित होकर कार्तिकेयपुर राजवंश ने अपनी राजधानी जोशीमठ से कुमाऊँ में बागेश्वर व अल्मोड़ा के बीच कत्यूरी घाटी को बना दिया । इनकी राजभाषा संस्कृत तथा आम भाषा पाली थी । इसी वंश के राज में उत्तराखंड में आदिगुरु शंकराचार्य आये और उन्होंने यहाँ पर प्रचलित बौद्ध धर्म को खत्म किया और बद्रीनाथ व केदारनाथ की स्थापना की । बताया जाता है कि बद्रीनाथ मन्दिर इससे पहले बौद्ध मठ हुआ करता था । जिसको सम्राट अशोक के कार्यकाल में बनाया गया था । शंकराचार्य ने यहां ज्योतिर्मठ की स्थापना की । 820 ई. में शंकराचार्य की केदारनाथ में मृत्यु हो गयी ।
कार्तिकेयपुर वंश को कुमाऊँ का पहला इतिहासिक राजवंश माना जाता है । इस वंश के बाद यहां कत्यूरी वंश का उदय हुआ जो सुरवाती दिनों में ही कई छोटे छोटे शाखाओं में बंट गया ।
असकोट का रजवार वंश और डोती का मल्ल वंश, कत्यूरी वंश की ही शाखाएं थी । इसी बीच पश्चिमी नेपाल के राजा आशिक चल्ल ने 1191 में कत्यूरी राजवंश पर आक्रमण कर दिया और कुछ हिस्से पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया । कत्यूरी वंश का अंतिम शासक ब्रह्म देव जिसको वीरम देव या वीर देव के नाम से भी जाना जाता है, के शासन में 1398 में तैमूर लंग ने भारत पर आक्रमण किया । तैमूर लंग और ब्रह्म देव हरिद्वार में एक दूसरे से भिड़े जिसमे ब्रह्म देव की मृत्यु हो गयी । इसी शासक के साथ कत्यूरी वंश का भी अंत हो गया । लेकिन इसी वंश के समकालीन एक वंश कुमाऊँ में धीरे धीरे अपने पाँव फैला रहा था और कत्यूरी वंश के खात्मे के बाद यह वंश कुमाऊँ में सक्रिय हो गया । इस वंश का नाम था चन्दराज वंश । इस राजवंश के पहले राजा थोहर चंद थे और इनकी राजधानी चम्पावत थी । इसी वंश के एक राजा भीष्म चंद ने राजधानी को चम्पावत से अल्मोड़ा करने का विचार किया और अल्मोड़ा में खगमर किले का निर्माण करवाया लेकिन 1560 में जब यह किला बनकर तैयार हुआ तो भीष्म चंद की मृत्यु हो गई । बाद में 1563 में बालो कल्याण चंद ने राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा की तथा उसने लाल मंडी का किला और मल्ला महल का किला भी बनवाया । चन्दराज वंश ने ही अल्मोड़ा नगर बसाया था ।
चन्दराज वंश के मुगल शासकों से सम्बंध थे ऐसा कहीं कहीं वर्णन मिलता है । 1790 में चन्दराज वंश का भी अंत हो गया और इसके अंतिम शासक महेंद्र चंद थे जो कि गोरखाओं से पराजित हुए ।
★ नयी शताब्दी का गढ़वाल क्षेत्र :-
यह क्षेत्र 52 छोटे छोटे राज्यों में बंट गया था और सभी राजाओं ने अपने अपने राज्यों में किले स्थापित कर दिये थे । इन सब मे सबसे शक्तिशाली राजा चान्दपुर का राजा भानुप्रताप था । इसी के शासन में गुजरात का एक शासक कनकपाल यहां आया और भानुप्रताप की पुत्री से विवाह कर यहीं बस गया । इसी कनकपाल ने 1488 में गढ़वाल क्षेत्र में परमार या पंवार वंश की स्थापना की और चान्दपुर गढ़ (गैरसैंण) को अपनी राजधानी बनाया । परमार वंश के 37वें राजा अजयपाल ने 1515 में बाकी गढ़ो को जीत कर एक नया गढ़ बनाया जिसका नाम उसने गढ़वाल रखा । और राजधानी को गैरसैंण से बदल कर पहले देवलगढ़ और 1517 में श्रीनगर कर दिया था । इसी वंश के एक शासक बलभद्र को दिल्ली के शासक बहलोल लोदी ने शाह की उपाधि दी थी और तब से परमार वंश ने अपने नाम के आगे शाह लगना सुरू किया , वीरभद्र शाह । 1636 में महीपति शाह की मृत्यु के बाद उनका अल्पवयस्क पुत्र राजगद्दी पर बैठा किन्तु उसके अल्पवयस्क होने के कारण उसके संरक्षण में रानी कर्णावती की रेख देख में राज्य आगे बढ़ा । इसी बीच मुगल सम्राट शाहजहां के सेनापति नवाजत खान ने दून घाटी पर हमला कर दिया लेकिन रानी कर्णावती की सूझबूझ से यह हमला नाकाम रहा और कुछ मुगल सैनिक बन्धी बना लिए गए । बाद में रानी कर्णावती के आदेश पर मुगल सैनिकों की नाक काट दी गयी और रानी कर्णावती नाक कटी रानी के रूप में प्रशिद्ध हो गई ।
◆ कुमाऊँ क्षेत्र(1790) पर अधिकार के बाद गोरखाओं ने 1791 में गढ़वाल क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया किन्तु उनको सफलता नही मिली । 1803 में जब गढ़वाल भूकंप की तबाही से गुजर रहा था तब गोरखाओं ने फिर से आक्रमण किया और गढ़वाल के कुछ हिस्से पर कब्जा कर दिया । उस वक्त के गढ़वाल शासक प्रधुम्न शाह ने 14 मई 1804 को देहरादून के खुडखुडा मैदान में गोरखाओं के खिलाफ निर्णायक युद्ध लड़ा किन्तु इसमें प्रधुम्न शाह की मृत्यु हो गई । इस युद्ध के बाद पूरे कुमाऊँ के साथ गढ़वाल के कुछ हिस्सों पर गोरखाओं का राज हो गया । बाद में प्रधुम्न शाह के एक बेटे सुदर्शन शाह ने गोरखाओं के खिलाफ अंग्रेज गवर्नर लार्ड हेस्टिंग्स से मदद मांगी और उन्होंने मदद की भी 1814 में अंग्रेजी सेना ने गोरखाओं के खिलाफ युद्ध लड़ा और 1815 के सुरवात में गढ़वाल स्वतंत्र हो गया किन्तु युद्ध के 7 लाख व्यय न चुकाने के कारण अंग्रेजी हुकूमत ने गढ़वाल के पूर्वी हिस्से पर कब्जा कर लिया जिस कारण सुदर्शन शाह को राजधानी श्रीनगर से टिहरी विस्थापित करनी पड़ी और परमार वंश की नयी रियासत टिहरी हो गयी । इसके बाद 1815 में अंग्रेजों ने कुमाऊँ पर आक्रमण किया और 28 नवम्बर1815 को चम्पारण बिहार में अंग्रेजों और गोरखाओं के बीच संगौली की संधि हुई जो मार्च 1816 से लागू हुई । इसी के साथ टिहरी रियासत को छोड़कर सम्पूर्ण गढ़वाल और कुमाऊँ पर अंग्रेजो का कब्जा हो गया था ।