उत्तराखंड पौराणिक वाद्य यंत्र की लिस्ट बहुत लम्बी तो नही है, लेकिन इतनी दिलचस्प है कि उसके बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करने की इच्छा हमेशा मन में बनी रहती है । आज उत्तराखंड में हर वो आधुनकि वाद्य यंत्र उपयोग में लाया जाता है जो देश या विदेश में संगीत के क्षेत्र में उपयोग किया जा रहा है । दरअसल उत्तराखंड के पौराणिक मूल निवासी वही लोग हैं जो पहाड़ों पर थे । फिर चाहे वह कुमाऊँ के थे या गढ़वाल के । समय के साथ साथ राज्य की मैदानी सीमाओं में देश से अन्य लोग आकर यहां बसे और आज वह भी उत्तराखंडी हो गए । उनमें से अधिकांश को इन वाद्य यंत्रों के बारे में पता भी नही होगा । क्योंकि देश के बाकी हिस्सों की तरह ही उत्तराखंड मैदानी इलाकों की संस्कृति में तेजी से परिवर्तन आया और लोग जो पहाड़ी क्षेत्रों से यहां आए, वे भी अपनी पौराणिक संस्कृति को पीछे छोड़ आए । हालांकि आज लोग दोबारा अपनी संस्कृति की तरफ लौटने लगे हैं । लेकिन मैदानी इलाकों में अब भी राज्य के मुख्य वाद्य यंत्रों की गूंज कम ही सुनाई देती है । चलो पहले राज्य के पौराणिक वाद्य यंत्रों की लिस्ट पे एक नजर डालते हैं ।
- डौंरु
- हुड़की
- कांशी की थाल
- बाँसुरी
- तुहरी (रणसिंघा)
- ढोल
- दमाऊ
- मस्कबाजू या मश्कबीन (Bagpipe)
इसके अलावा एक दो वाद्य यंत्र कुमाऊँ क्षेत्र में भिन्न हो सकते हैं । या यह भी हो सकता है कि इन्ही वाद्य यंत्रों को कुमाऊँ में किसी और नाम से जाना जाता हो।
आइये अब एक एक कर सबके बारे में जान लेते हैं । कि इनका उत्तराखंड पौराणिक वाद्य यंत्रों में क्या उपयोग रहा और इनकी विलुप्त होती कहानी का क्या रहस्य है ।
डौंरु या डौंर (डौंरी)

यह उत्तराखंड में बहुत प्रचलित वाद्य यंत्रों में एक है। इनको बजाने वाले वाधक को धामी कहा जाता है। इसका उपयोग सर्वाधिक स्थानीय देवताओं को नचाने में रहा। लेकिन यह कभी भी इस कार्य में अकेला नही बजता था, साथ बजती थी कांशी की थाल । इनकी संरचना दोनों तरफ से समांतर होती है और बीच केंद्र में मोटाई कुछ कम होती है। लेकिन इतनी कम नही होती कि हुड़की की तरह एक हाथ से पकड़कर बजाया जा सके । हाँ आकार में यह बहुत छोटा होता है, इतना छोटा की धामी इसको अपनी जाँघ के नीचे रख के बजा लेता है । आज यह विलुप्त सा ही हो गया है क्योंकि एक तो धामी आसानी से नही मिलते दूसरा ढोल जैसे उपकरण इसकी प्रतिस्पर्धा में मौजूद हैं । और पहाड़ो पर ढोली आसानी से मिल भी जाते हैं ।
हुड़की

हुड़की उत्तराखंड के गढ़वाल व कुमाऊँ दोनों ही मंडलों में अपनी विशेष पहचान रखती है। हुड़की का नाम सुनते ही मन में एक हिलोर सी जाग उठती है। आसानी से बजाया जाने वाला एक मात्र वाद्य यंत्र है हुड़की । हुड़की है तो डौंरु की समरूप ही लेकिन हुड़की बीच से इतनी पतली होती है कि एक हाथ की मुठ्ठी की पकड़ में आसानी से बैठ जाती है। वाधक इसको एक साथ से पकड़े रहता है और दूसरे हाथ से थाप देकर आसानी से बजा लेता है। हुड़की का प्रयोग जागर गायन, मनोरंजन कार्यक्रम और स्थानीय कला संगीत में होता रहा है । हुड़की उत्तराखंड के गढ़वाल में तो कम ही दिखाई देती है लेकिन उत्तराखंड कुमाऊँ क्षेत्र में आज भी हुड़की उपयोग में लाई जाती है ।
कांशी की थाल या थाली

कांशी की थाल को उत्तराखंड में वाद्य यंत्र के रूप में प्रयोग किया जाता था/है यह बात बहुत कम ही लोग जानते होंगे । दरअसल इसका उपयोग एक ही विशेष कार्य में किया गया इसलिए इसको इतनी प्रसिद्धि नही मिल पाई । यह स्थानीय देवी देवताओं को नचाने में डौंरु के साथ बाजाई जाती थी/है । लेकिन जिस थाल/थाली को इस कार्य के लिए चयनित किया जाता था उस पर कभी भोजन नही परोसा जाता था । वह देवी/देवता के पूजा के स्थान पर ही विद्यमान रहती थी । आज डौंरु ही अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, तो ऐसे में कांशी की थाल का उपयोग भी बन्द हो गया है । यह प्रथा उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में खूब फलीभूत रही । लेकिन आज ढोल दमाऊ की गूंज ने इसकी आवाज को जैसे सूना कर दिया है ।
बाँसुरी

बाँसुरी भी उत्तराखंड के पौराणिक वाद्य यंत्रों में सम्मिलित थी । इस बात की पुष्टि इस लिए भी की जा सकती है कि उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर भगवान श्रीकृष्ण की गाथाओं का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण को अपनी बाँसुरी से अत्यंत स्नेह था। ऐसे में बाँसुरी उत्तराखंड में प्रचलित न हुई हो यह नही हो सकता । भले आज यह स्थानीय जगहों पर न दिखाई दे लेकिन उत्तराखंड की अनेक पौराणिक कथाओं में बाँसुरी का प्रसंग आपको अवश्य मिलेगा। इस बात को भी नकारा नही जा सकता कि यह विवाह जैसे शुभ कार्यों में सम्मिलित न रही हो । क्योंकि वर्ष 2015 में मैं किसी कार्य से जम्मू कश्मीर गया था । जम्मू से किश्तवाड़ जाते हुए रास्ते में एक छोटा शहर डोडा पड़ता है । वैसे डोडा अपने आप में एक पूरा जिला है लेकिन उसके अंतर्गत ही डोडा सिटी के नाम से एक छोटा शहर है। इस शहर से आगे किश्तवाड़ की तरफ 10 से 15 किलोमीटर बढ़ने पर मार्ग में एक और स्थानीय शहर ‘ठाठरी’ पड़ता है। मैं वहां से गुजर रहा था तो सड़क पर 10-15 लोग बाँसुरी बाजए एक गली की तरफ मुड़ रहे थे । मैंने स्थानीय लोगों से पूछा कि यह क्या है ? तो उन्होंने बताया यह हिन्दू लड़के की बारात लड़की के घर जा रही है । जीवन में पहली बार मैने इस प्रकार का विवाह देखा था अतैव मैंने उनसे पूछ ही लिया, कि क्या यह बाँसुरी ही है ? तो स्थानीय नागरिक ने कहा – जी हाँ ! यहां पर हम इस प्रकार से भी विवाह कार्य संम्पन्न करते हैं । और अगर किसी के पास धन की कमी न हो तो फिर धूमधाम से भी करते हैं । अतैव उत्तराखंड में भी किसी न किसी दौर में ऐसा कुछ रहा होगा यह मेरा मानना है ।
तुहरी (रणसिंघा)

तुहरी (रणसिंघा) उत्तराखंड में दो प्राकर से उपयोग में लाया जाने वाला वाद्य यंत्र था/है । पहला राजा के समय यह राज भवनों के मुख्य द्वारों पर चेतना का संकेत रूप में बजाया जाता था । दूसरा स्थानीय देवी देवता जब नदियों के संगम पर स्नान करके लौटते थे/हैं, उस वक्त बजाय जाता था/है। तुहरी (रणसिंघा) एक लम्बा ताँबे का पाइप होता है जो मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित होता है। अगला हिस्सा अधिक चौड़ा व पिछला (बजाने वाला हिस्सा) पतला होता है । यह बारीक छेद से तेज फूंक मारने पर अनुनाद पैदा करता है और अगला हिस्सा चौड़ा होने के कारण स्वर को गुंजायमान बना देता है। तुहरी (रणसिंघा) दो प्रकार के होते हैं । एक जो बिल्कुल सीधे होते हैं और दूसरे जो कुछ घुमाउदार संरचना के होते हैं ।
ढोल

राज्य वाद्य यंत्र की कृति को अलंकृत करता ढोल, शायद ही आज अपनी पहचान का मोहताज हो । देश से लेकर विदेश तक अपनी थां मनवाने वाला यह वाद्य यंत्र उत्तराखंड में बहुत प्रचलित और प्रसिद्ध हुआ। इसके होने से बाकी वाद्य यंत्रों के चलन में रहने पर बहुत असर पड़ा है । ढोल, कुमाऊँ और गढ़वाल दोनों ही जगह प्रचिलत है । हाँ भले इसको बजाने का तरीका जरूर अलग अलग है । यह शादी विवाह, नाच-गाने, देवी-देवता और जागर जैसे प्रचिलत रीति रिवाजों के लिए सर्वाधिक प्रिय वाद्य यंत्र है। इसको एक नही बल्कि कई अलग अलग सुरों में बजाया जा सकता है। इसके साथ शब्दों को लैबध करने में दमाऊ अहम भूमिका निभाता है। शब्दों पर इतनी अच्छी पकड़ होने के कारण ही यह वाद्य यंत्र उत्तराखंड में प्रसिद्ध हो गया। हर कार्य को पूर्ण करने के लिए कुछ विशेष शब्दों का प्रयोग ढोली द्वारा किया जाता है जिससे लोग समझ जाते है कि ढोली क्या कह रहा है । उदाहरण स्वरूप:- बारात के चलने का समय हो गया या दुल्हे-दुल्हन का मंगल स्नान या अनेक देवी-देवताओं के बीच किसी एक को ही नचाना आदि इसकी कार्य कुशलता का परिचय है। ढोल साधारणतः काँसे या ताँबे धातु के साथ बनाया जाता है । लेकिन मेरा निजी अनुभव है कि ताँबे का ढोल, काँसे से निर्मित ढोल से अच्छे स्वरों में बजता है। ताँबे के साथ ढोल की गर्जना मन के अंदर उमंग की बौछार पैदा कर देती है और न चाहते हुए भी पैर थिड़कने लगते हैं । ढोल वजन में ठीक ठाक होता है इसलिए ढोली ढोल को दोनों किनारों से एक चौड़े पट्टे की मदद से अपने गले पर कांधों की मदद से लटका के बजाता है ।
दमाऊ

ढोल का स्वर पूरक है दमाऊ। इसलिए ढोल के साथ -साथ दमाऊ भी राज्य वाद्य यंत्र की कृति को अलंकृत करता है। इनका नाम इस प्रकार लिया जाता है कि मानो एक ही वाद्य यंत्र हो। दमाऊ एकल स्वर में बजने वाला वाद्य यंत्र है जबकि इसके स्वरों को भाव देने का कार्य ढोल पूर्ण करता है। दमाऊ भी ताँबे या काँसे में से किसी भी धातु का बनाया जा सकता है। यह अर्ध अंडाकार नुमा आकृति का होता है। इसका वजन ढोल जितना तो नही होता लेकिन वाधक इसको एक जगह पर उपस्थित हुक की मदद से रस्सी लगाकर गले में कांधों की मदद से धारण कर बजाता है ।
मस्कबाजू या मश्कबीन (Bagpipe)

यह वाद्य यंत्र उत्तराखंड में अंग्रेजों की देन है । 1803 के बाद अंग्रेज उत्तराखंड आए थे । उसके बाद ही उत्तराखंड में इन वाद्य यंत्र का दिखना शुरू हुआ । इसका नाम ही इसकी पहचान हैं । बैग का मतलब कपड़े का थैला और पाइप मतलब नली । मतलब थैले और नली का संयुक्त मिश्रण है मस्कबाजू या मश्कबीन। उत्तराखंड में बहुत प्रचलित है । यहां तक की सेना के विशिष्ट बैंड में भी इसका विशेष महत्व है । ढोल और दमाऊ के साथ इसकी भूमिका पूरे उत्तराखंड में किसी से छिपी नही है। लेकिन अब धीरे धीरे इनकी जगह पर पियानों का प्रयोग देखने को मिलने लगा है । वजह ? इसकी वजह यह है कि एक तो इसमें दम बहुत लगना पड़ता है, क्योंकि यह फूंक के सहारे बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है । दूसरा अब धीरे-धीरे इनको बजाने वाले लोगों में भी कमी आने लगी है। अधिकांश लोग रोजी रोटी के चलते इस कार्य से हटने लगे है । जिस कारण इस कला पर भी संकट मंडराता जा रहा है ।